देश में दो करोड़ बच्चियां माहवारी शुरू होते ही छोड़ देती हैं स्‍कूल

देश में दो करोड़ बच्चियां माहवारी शुरू होते ही छोड़ देती हैं स्‍कूल

नरजिस हुसैन

देश में हर साल करीब 2 करोड़ 3 लाख किशोरियां स्कूल छोड़ देती हैं। स्कूल छोड़ने की बड़ी वजह माहवारी में इन किशोरियों को पर्याप्त सुविधाएं न मिल पाना है। हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब इस बारे में सोच-फिक्र की जा रही है बीते लंबे वक्त से इस तरफ सामाजिक संगठनों ने सरकार और समाज का ध्यान खींचा हैं। लेकिन, भारत जैसे बड़े और बेतहाशा आबादी से बरे देश में बदलाव आने में अर्सा लगता है।

2015 में मुंबई की एक गैर-सरकारी संस्था दसरा और बैंक ऑफ अमेरिका ने मिलकर इस मुद्दे पर काम किया और Dignity for Her  रिपोर्ट में पाया कि उच्चतर शिक्षा में लड़कियों की तादाद कम होने की बड़ी वजह माहवारी या पीरियड् को स्कूल में नहीं संभाल पाना है। खासकर देश के ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में 13-14 साल की लड़कियां हर महीने माहवारी के कारण छह दिन की छुट्टियां स्कूल से करती है। बात सिर्फ ये नहीं है कि ऐसे में उन्हें घर बैठना अच्छा लगता है बल्कि ऐसे में स्कूल में लड़कियों के अलग टॉयलेट न होने की वजह से निजता नहीं हो पाती। बड़े और मंझले शहरों में ये समस्या कुछ कम जरूर हुई है लेकिन, ज्यादातर स्कूलों में बड़ी क्लासों से लड़के और लड़कियों के टॉयलेट अलग होते हैं। हालांकि, लड़कियों में माहवारी अमूमन सातवीं कक्षा से शुरू हो जाती है।

एक दूसरी बड़ी वजह जिसका रिपोर्ट में जिक्र किया गया है वह है स्कूल के टॉयलेट में पानी की कमी या पानी का न होना। स्कूलों में (यहां ग्रामीण पर खास जोर है) मान लीजिए अगर टॉयलेट है भी तो न तो कूड़दान है और न ही पानी। अब ये लड़कियां पैड कहां फेंके और कहां हाथ धोएं ये बड़ी मुशिकल है। ज्यादातर जगहों में टॉयलेट हैं तो दरवाजे गायब, टूटी खिड़कियां, लाइटें नहीं और सन्नाटे के डर से लड़कियां या तो जाती नहीं या फिर झुंड में जाती हैं। इन तमाम वजहों से रिपोर्ट बताती है कि कई बार ये लड़कियां 12-13 घंटे तक न तो पैड बदल पाती है और न ही टॉयलेट कर पाती है और वैसे ही घर को लौट जाती है। स्कूल के बाहर भी खुले में इस हालत में ये लड़कियां शौच कर ही नहीं पातीं। देश 2019 तक खुद को शौच मुक्त भारत इसीलिए नहीं बना पाया।

देश में माहवारी औरतों की तादाद 35 करोड़ 50 लाख है बावजूद इसके लगातार लिंग आधारित भेदभाव बना हुआ है। माहवारी से जुड़ी भ्रांतियां भी इस कदर समाज में हैं जो लड़कियों को आगे की शिक्षा लेने से रोक रही है। रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि करीब 70 फीसद मांए माहवारी को बुरा मानती है और 71 प्रतिशत लड़कियों को ऐन उम्र तक माहवारी के बारे में कुछ मालूम नहीं होता। 2014 में युनिसेफ की भी एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि तमिलनाडु में 79 औरतें माहवारी के समय बरती जानी वाली साफसफाई के बारे में कुछ नहीं जानती थी जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 66 प्रतिशत, राजस्थान में 56 फीसद और पशिचम बंगाल में 51 फीसद था। अलग-अलग समय और संस्थाओं के किए अध्ययनों में बार-बार एक ही सामने आई कि देश में आज भी माहवारी के दौरान सफाई की जानकारी लड़कियों और महिलाओं को नहीं है और हालात एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बदस्तूर जारी है। तो यहां यह जान लेना बहुत जरूरी है कि माहवारी के बारे में जानकारी का ज्यादा-से-ज्यादा प्रचार और प्रसार आगे बढ़ती महिला स्वास्थ्य समस्याओं को वक्त रहते रोकने में कारगर होगा।

परेशानी कोई एक नहीं है शहरों में तो जानकारी के चलते केमिस्ट और जनरल स्टोर्स पर सैनेटरी नैपकिन लड़कियों और महिलाओं को आसानी से मिल जाता है लेकिन, गांवों या थोड़े और पिछड़े इलाकों में किसी भी तरह की दुकाने यह नैपकिन नहीं रखते और रखते भी हैं तो लड़कियां जाकर खरीदें कैसे। सैनेटरी नैपकिन वहां आज भी एक विलासिता है। इसलिए वहां आज भी घर में कपड़े, रूई या रेत के बने पैड का इस्तेमाल औरतें करती हैं। अब ऐसे में यहां किशोरियां किस तरह स्कूल जाएं और अपनी निजता भी बनाए रखें।

स्वच्छ भारत, स्वच्छ विद्यालय भारत सरकार की वो राष्ट्रीय पहल है जिसके तहत देश के सभी स्कूलों में बच्चों को शौचालय और पीने का साफ पानी मिलना सुनिश्चित किया गया है। ये मिशन सितंबर, 2014 में शुरू किया गया था जो अब पांच साल पूरे कर चुका है। इस मिशन के जरिए यह कहा गया है कि देश के तमाम स्कूलों (खासकर सरकारी) के बच्चों को पीने का साफ पानी और शौचालय की सुविधा मिले ताकि उनमें इस दिशा में जागरुकता आए और वे अपने घरों से बाहर निकलकर समाज को साफ-सुथरा बनाने में अपना योगदान दे सकें। यही नहीं यह भी तय किया गया है कि पानी और शौचालय न होने से जो बीमारियां होती है बच्चों को उनके बारे में भी जानकारी मिले और उन्हें रोकने में वे भी मददगार बन सकें।

पीने का पानी और शौचालय दो ऐसी मूलभूत जरूरतें है जिसका असर स्कूलों में बच्चों की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी पर साफ दिखाई देता है। इस गैर-मौजूदगी की सबसे ज्यादा शिकार होती है लड़कियां जो स्कूलों में शौचालयों के अभाव के चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं या पानी की अनुपलब्धता के कारण बीमारियों की चपेट में आ जाती है। मासिक धर्म के समय स्कूलों में लड़कियों के अलग से शौचालयों के नहीं होने की वजह इन लड़कियों को आगे पढ़ने से रोकते हैं। या मासिक धर्म के समय ये लड़कियां छुट्टी कर लेती हैं जिसका असर उनकी पढ़ाई पर पड़ता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को घोषणा की थी कि बालिकाओं के लिए अलग शौचालयों के साथ देश के सभी विद्यालयों में शौचालयों का लक्ष्य एक वर्ष के भीतर पूरा किया जाना चाहिए। लेकिन, 2016-17 तक देश के 21,000 सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट नहीं बन पाए। इस बात की जानकारी 2019 के शीतकालीन सत्र में स्वच्छ्ता और पेयजल मंत्री रमेश चंदाप्पा जिगाजिनग्गी ने लोक सभा में दी।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार की यह चिंता हाल फिलहाल में ही पैदा हुई है 2010 में भी सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 20 राज्य के 152 जिलों में मुफ्त पैड स्कीम चलाई थी जिसके तहत ग्रामीण लड़कियों को आशा दीदीयों के जरिए छह पैड का पैक छह रुपए में देना शुरू किया था। इसके बाद 2014 में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम, 2015 में सरकार ने सबला स्कीम शुरू की फिर 2017 में निर्मल भारत अभियान। इन सभी अभियानों का मकसद किशोरियों को मासिक धर्म के संबंधित जानकारी देना और अनय तरह की जागरुकता फैलाना था लेकिन, स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट और पानी की सुविधा न हो पाने की वजह से यह तमाम सरकारी कार्यक्रम अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाए। हालांकि, कोशिशे जारी तो हैं लेकिन अभी मंजिल कुछ दूर और है।

 

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